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जब भी पड़ाव से निकले, आगे चले
कुछ किताबें बंद करीं,
कुछ परिंदों को पिंजरे से आज़ाद किया,
दरवाज़े की सांकल पर ताला भी लगाया,
... पर एक खिड़की खुली रह जाती है..
और कुछ हमसफ़र मुसाफिर थे
जो आये इस घर में... चले गए
उनकी यादों को नीम की पत्तियों में बाँध कर
सोचा था - चलो ऐसा भी होता है
... पर एक खिड़की खुली रह जाती है..
अजब सा कारवां है ये
अजब सा मैं मुसाफिर हूँ
जो काँधे पर लिए ये कुटिया भटकता, ढूंढता हूँ
बांधता हूँ, कैद करता हूँ सभी खोये हुए लम्हे
... पर एक खिड़की खुली रह जाती है..
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